निदेशक की कलम से
हालाँकि आलू आज भारत के हर घर में एक जाना पहचाना नाम है, लेकिन यह इस प्राचीन भूमि पर लगभग 400 साल पहले ही आया था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोप से इसकी शुरुआत के बाद, आजादी तक यह एक महत्वहीन फसल बनी रही,जिसका मुख्य कारण था भारत में लाई गई यूरोपीय किस्मों की खराब उत्पादकता,जो समशीतोष्ण कृषि-जलवायु के लिए अनुकूलित थीं और ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में खेती के लिए उपयुक्त थीं। भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा के लिए इस भरोसेमंद फसल की क्षमता का दोहन करने के लिए वर्ष 1949 में आईसीएआर-केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) की स्थापना की। संस्थान ने उपयुक्त किस्में और प्रौद्योगिकियां विकसित की, जिन्होंने समशीतोष्ण आलू की फसल को वस्तुतः उपोष्णकटिबंधीय फसल के रूप में परिवर्तित कर दिया, जिससे ठंडे पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर रबी फसल के रूप में विशाल भारत-गंगा के मैदानी इलाकों तक इसका प्रसार संभव हो गया। इसने आलू उत्पादन में क्रांति ला दी, जिससे अगले पांच दशकों के दौरान इसके उत्पादन क्षेत्र, उपज और उत्पादकता में बहुत तेजी से वृद्धि हुई।
आलू (सोलेनम ट्यूबरोसम एल.) एक पौष्टिक भोजन है जो दुनिया भर की एक बड़ी आबादी की ऊर्जा और पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है। इसका उपयोग लगभग 8000 वर्षों से मनुष्यों द्वारा भोजन के रूप में किया जाता रहा है। ऐसा माना जाता है कि आलू की खेती का प्रारंभ दक्षिण अमेरिका में, संभवतः पेरू और बोलीविया की सीमाओं पर टिटिकाका झील के पास हुआ। जब स्पेन ने पेरू पर विजय प्राप्त की, तो उन्होंने वहां से आलू ले लिया और सोलहवीं शताब्दी के अंत तक इसे पूरे यूरोप में फैलाया। पुर्तगाल और ब्रिटेन सहित कई यूरोपीय देशों ने आलू के आगे प्रसार में मदद की। हालाँकि, वैश्विक खाद्य प्रणाली में इसके महत्व और भूमिका को कम सराहा गया है। दुनिया भर के लगभग 160 देशों में आलू को मुख्य भोजन, नकदी फसल, पशु चारा और औद्योगिक उपयोग के लिए स्टार्च के स्रोत के रूप में जाना जाता है।
वर्ष 2016 में 160 से अधिक देशों में 19.2 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर 377 मिलियन टन कंद के उत्पादन के साथ वर्तमान मेंआलू दुनिया की चौथी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। संयुक्त राष्ट्र ने खाद्य सुरक्षा प्रदान करने और गरीबी उन्मूलन के अपने सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में एक प्रमुख खाद्य पदार्थ के रूप में आलू के योगदान को मान्यता देते हुए वर्ष 2008 को "अंतर्राष्ट्रीय आलू वर्ष" के रूप में नामित किया। आलू का पोषण मूल्य, विशेष रूप से इसमें स्कर्वी को रोकने के लिए एस्कॉर्बिक एसिड की उच्च मात्रा की उपलब्धता, बहुत पहले से ज्ञात है। आलू भोजन के लिए एक अच्छा विकल्प है और किसी भी अन्य प्रमुख खाद्य फसलों की तुलना में कम भूमि पर अधिक तेजी से पौष्टिक भोजन पैदा करने में सक्षम है। उच्च प्रोटीन-कैलोरी अनुपात (17 ग्राम प्रोटीन: 1000 किलो कैलोरी) और छोटे जीवन चक्र के कारण, आलू प्रमुख खाद्य फसलों की तुलना में प्रति यूनिट के आधार पर अधिक खाद्य ऊर्जा, प्रोटीन और शुष्क पदार्थ उपज पैदा करता है। आलू के मामले में किसान 80% तक बायोमास को खाद्य, पौष्टिक भोजन के रूप में काट सकते हैं, जबकि अनाज के मामले में केवल 50% तक ही अनाज के रूप में काटा जा सकता है।
आलू का पोषण मूल्य अच्छी तरह से स्थापित है और इसे एक कार्बोहाइड्रेट युक्त और कम वसा वाले बहुमुखी भोजन के रूप में जाना जाता है। ताजा कटाई किए हुए आलू में लगभग 80% पानी और 20% शुष्क पदार्थ हो सकता है, इस शुष्क पदार्थ में से लगभग 60-80% स्टार्च के रूप में बनता है। इसमें शुष्क पदार्थ, खाद्य ऊर्जा और खाद्य प्रोटीन की मात्रा इसे पोषक तत्वों की उपलब्धता वाला एक अच्छा विकल्प बनाती है। शुष्क वजन के आधार पर, आलू में प्रोटीन की मात्रा अनाज के बराबर होती है और अन्य जड़ों और कंदों की तुलना में अधिक होती है। उपभोक्ताओं के बीच आलू, मुख्यत: ऊर्जा के स्रोत के रूप में जाना जाता है, लेकिन महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की आपूर्ति के इसके महत्व को अच्छी तरह से मान्यता नहीं मिली है। आलू जटिल कार्बोहाइड्रेट, आहार फाइबर और विटामिन सी का एक उत्कृष्ट स्रोत है। इसमें विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्यवर्धक यौगिक भी होते हैं, जैसे फाइटोन्यूट्रिएंट्स, जिनमें एंटीऑक्सीडेंट गतिविधि होती है। आलू में मौजूद कुछ स्वास्थ्यवर्धक यौगिकों में कैरोटीनॉयड, फ्लेवोनोइड और कैफिक एसिड शामिल हैं। इसके अलावा, फ्री रेडिकल्स के खिलाफ गतिविधि प्रदर्शित करने के लिए ज्ञात पेटाटिन जैसे अद्वितीय कंद भंडारण प्रोटीन भी इसमें मौजूद हैं। आलू एस्कॉर्बिक एसिड, थायमिन, नियासिन, पैंटोथेनिक एसिड और राइबोफ्लेविन का भी एक बड़ा स्रोत है। आलू के पोषण मूल्य के कारण यह मानव आहार में अत्यधिक वांछनीय है। आलू युक्त भोजन का पोषक मूल्य उसके साथ परोसे जाने वाले अन्य घटकों और बनाने की विधि पर निर्भर करता है। वैसे भी, आलू में अधिक वसा नहीं होती है और यह जो तृप्ति की अनुभूति देता है, वह वजन घटाने का लक्ष्य रखने वाले लोगों के लिए सहायक है।
जैसा कि ऊपर उल्लिखित है, सीपीआरआई ने उपोष्णकटिबंधीय कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के तहत आलू की खेती और उपयोग को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संस्थान अपने परिभाषित अधिदेशों यथा: (i) आलू की स्थायी उत्पादकता, गुणवत्ता और उपयोग को बढ़ाने के लिए बुनियादी, रणनीतिक और व्यावहारिक अनुसंधान; (ii) आलू पर आनुवंशिक संसाधनों और वैज्ञानिक जानकारी का भंडार; (iii) प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकियों का प्रभाव मूल्यांकन; (iv) रोग मुक्त केंद्रक और ब्रीडर बीज आलू उत्पादन; और (v) आलू पर एआईसीआरपी के माध्यम से प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और सत्यापन का समन्वय करना आदि पर केंद्रित तरीके से काम कर रहा है। भारत में लगभग 80% आलू सिन्धु-गंगा के मैदानी इलाकों में उगाया जाता है। शेष क्षेत्र पहाड़ी एवं पठारी है। इन क्षेत्रों की विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी स्थितियों के कारण विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं। किसी फसल का आनुवंशिक सुधार एक सतत कार्य है क्योंकि उत्पादकों और उपभोक्ताओं की आवश्यकताएं बदलती रहती हैंऔर नई बीमारियां, कीट और अजैविक तनाव विकसित होते रहते हैं। अब तक, सीपीआरआई ने 60 से अधिक किस्में विकसित की हैं। इन्होंने भारत में आलू की खेती संबंधी जरूरतों को सफलतापूर्वक पूरा किया है। इसके अलावाखाद्य किस्में, प्रसंस्करण किस्में भी विकसित की गई हैं। इन किस्मों ने देश में उत्पादन और उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारतीय कार्यक्रम की किस्मों/संकरों से न केवल इस देश को बल्कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, बोलीविया, मेडागास्कर, नेपाल, फिलीपींस और श्रीलंका जैसे कई अन्य देशों को भी लाभ हुआ है, जहां व्यावसायिक खेती के लिए भारतीय किस्मों/संकरों को अपनाया गया है।
सीपीआरआई की एक सुव्यवस्थित बीज उत्पादन प्रणाली है जिसमें संस्थान हमारे क्षेत्रीय केंद्रों पर देश में 15 इकाइयों में वितरित लगभग 521 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र से सालाना लगभग 3000 टन प्रजनक बीज का उत्पादन करता है। प्रजनक बीज को फाउंडेशन-I, फाउंडेशन-II और प्रमाणित बीज के रूप में आगे तीन चरणों में गुणन के लिए राज्य के कृषि/बागवानी विभाग को आपूर्ति की जाती है। संस्थान ने बुनियादी और रणनीतिक अनुसंधान करने के लिए अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं बनाई हैं। संस्थान ने आलू अनुसंधान एवं विकास के विभिन्न क्षेत्रों में कई अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सहयोग स्थापित किए हैं। संस्थान द्वारा विभिन्न तकनीकों का विकास और व्यावसायीकरण किया गया है जिससे आलू उत्पादन, व्यापार, प्रसंस्करण और/या उपयोग से बड़ी संख्या में जुड़े लोगों को लाभ हुआ है।