आलू के बारे में संक्षिप्त में
आलू (सोलनमट्यूबरोसमएल) गेहूं, मक्का और चावल के बाद सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसलों में से एक है, जो विश्व में खाद्य और पोषण सुरक्षा में योगदान देता है।सोलनेसी वंश के इस कंद की फसल में लगभग 200 जंगली प्रजातियां है| इसकी उत्पत्ति दक्षिण अमेंरिका की उच्च एंडियन पहाड़ियों में हुई, जहाँ से इसे पहली बार 16 वीं शताब्दी के अंत में स्पेनिशशासको के माध्यम से यूरोप में लाया गया था। वहां आलू को एक समशीतोष्ण फसल के रूप में विकसित किया गया और बाद में यूरोपीय देशों के औपनिवेशिक विस्तार के परिणामस्वरूप यह दुनिया भर में पहुंच गया । 17 वीं शताब्दी की शुरुआत में संभवतः ब्रिटिश मिशनरियों या पुर्तगाली व्यापारियों के माध्यम से इसे भारत में लाया गया था।
आलू: फसल और आहार
आलू एक वार्षिक, शाकीय, द्वीबीज पत्री एवं कायिक जनन वाला पौधा है |इनका वानस्पतिक बीज जिन्हे सत्य आलू बीज के नाम से जाना जाता है, के माध्यम से भी जनन किया जा सकता है | आलू कंद एक संशोधित तना है जिसे एक विशेष संरचना के आधार पर भूमिगत विकसित किया जाता है जिसको स्टोलोन कहते है|इसमें एक सामान्य तने की सभी विशेषताएं होती हैं जैसे सुप्तकली (आँख) और शल्कपत्र । आलू कंद एक आयतनी खाद्य पदार्थ है जो अपने आसपास के वातावरण के अनुसार प्रतिक्रिया देता है, अत: इसे उपयुक्त भंडारण की आवश्यक्ता होती है
आलू एक अत्यधिक पौष्टिक, आसानी से पचने वाला, संपूर्ण आहार है जिसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, मिनरल, विटामिन और उच्च गुणवत्ता वाला रेशा पाया जाता है|आलू के एक कंद में 80 प्रतिशत पानी और 20 प्रतिशत शुष्क पदार्थ होता है जिसमें 14 प्रतिशत स्टार्च, 2 प्रतिशत चीनी, 2 प्रतिशत प्रोटीन, 1 प्रतिशत मिनरल, 0.6 प्रतिशत फाइबर, 0.1 प्रतिशत वसा और विटामिन बी और सी पर्याप्त मात्रा में होता है|अत: आलू सब्जियो एवं अनाज के मुकाबले अधिक पोषण प्रदान करता है |भारत में कम होती खेती योग्य भूमि और बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए, आलू स्थिति से निपटने के लिए एक बेहतर विकल्प है।
भारत में आलू
यूरोप में आलू की फसल गर्मियों में 14 घंटे लम्बे दीप्तीकाल और 140-180 दिनों की फसल अवधि में उगाई जाती है। हालांकि, भारतीय मैदानों में आलू पूरी तरह से विपरीत परिस्थितियों में उगाया जाता है। सर्दियों के दौरान लगभग 85 फीसदी फसलें लघु दीप्तीकाल (लगभग 10-11 घंटे की धूप के साथ) के दौरान उगाई जाती हैं और फसल की अवधि भी कम और हल्की सर्दियों के कारण 90-100 दिनों तक सीमित रहती है। आमतौर पर सुबह कोहरा होता है, जो आगे चलकर प्रकाश संश्लेषक गतिविधि पर गंभीर अवरोध पैदा करता है। इसके अलावा, कटाई के बाद की अवधि में लंबी गर्मी होती है, जो भंडारण सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न करती है|
ये सभी समस्याऐं भारत की उप-उष्णकटिबंधीय परिस्थितियों में आलू उगाने के लिए उपयुक्त किस्मों और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने का आह्वान करती हैं। इस हेतु स्वदेशी आलू अनुसंधान और विकास कार्यक्रमों को आरंभ करने की आवश्यकता को देखते हुए 1949 में पटना में केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) अस्तित्व में आया| संकरण और बीज स्वास्थ्य के रखरखाव हेतु मुख्यालय को बाद में शिमला में स्थानांतरित कर दिया गया | वर्ष 1971 में केआअनुसं में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भाकृअनुप) के तत्वावधान से आलू पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (एआईसीआरपी) की शुरुआत विविध कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में देश में आलू अनुसंधान और विकास के समन्वय के उद्देश्य से की गई थी।भारत में पांच दशकों से अधिक आलू अनुसंधान की सफलता की कहानी अभूतपूर्व है।1949-50 की तुलना में, क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता में वर्तमान में क्रमशः 550 प्रतिशत, 1745 प्रतिशत और 178 प्रतिशत (तालिका 1) व्रृद्धि हुई है | भारत अब विश्व में आलू के क्षेत्र में चौथे (1.48 मिलियन हेक्टेयर) और 183,3 क्विंटल/ हेक्टेयर की औसत उपज के साथ उत्पादन में तीसरे (28.47 मिलियन टन) स्थान पर है।
यह केवल स्वदेशी रूप से विकसित तकनीकों के कारण ही संभव हो पाया कि भारत में पिछले पांच दशकों के दौरान आलू के क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता में शानदार वृद्धि देखने को मिली है।
भारत में आलू अनुसंधान की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नानुसार हैं:
किस्मोंमें सुधार
अब तक 47 आलू किस्मों का विकास देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिये किया गया है जिनमें 28किस्में अकेले उत्तर भारत के मैदानी इलाकों के लिये विकसित की गई है | उत्तर भारतीय पहाड़ियों और अन्य विशेष समस्या वाले क्षेत्रों अर्थात सिक्किम, पश्चिमी बंगाल की पहाड़ियों और दक्षिण भारतीय पहाड़ियाँ हेतु भिन्न-भिन्न किस्में विकसित की गई है | विकसित 47 किस्मों में से 19 में विभिन्न जैविक और अजैविक तनावों के लिए विविध प्रतिरोधक क्षमता है। इसके अलावा, नौ किस्में नामत: कुफरी चिप्सोना -1, कुफरी चिपसोना -2, कुफरी चिपसोना -3, कुफरी हिमसोना, कुफरी फ्राईसोन, कुफरी ज्योति, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी लवकार और कुफरी सूर्या, प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त हैं। ये सभी किस्में तीन परिपक्वता समूहों के अंतर्गत आती हैं, अर्थात् अगेती (70-80 दिन), मध्यम (90-100 दिन) और पिछेती (110-120 दिन)।
के.आ.अनु.सं द्वारा विकसित आलू की किस्में न केवल भारत में बल्कि कई पड़ोसी देशों में भी उगाई जाती हैं। कुफरीचंद्रमुखीअफगानिस्तान में, कुफरी ज्योति नेपाल और भूटान में, कुफरी सिंदुरी बांग्लादेश और नेपाल में उगाई जाती है। इसके अलावा, श्रीलंका, मेंडागास्कर, मैक्सिको और फिलीपींस में भी पांच भारतीय संकर व्यावसायिक रूप से उगाए जाते हैं।
सीड प्लॉट तकनीक
यह तकनीक 1970 में न्यून एफिड अवधि के अंतर्गत उप-उष्णकटिबंधीय भारतीय मैदानों में स्वस्थ बीज आलू का उत्पादन करने के लिए विकसित की गई थी| विषाणु उन्मूलन, सूक्ष्म प्रसार और प्रभावी वायरल निदान के लिए जैव-तकनीकी पद्धति से सहायता प्राप्त इस तकनीक ने सालाना लगभग 2600 टन प्रजनक बीज का उत्पादन करके राष्ट्रीय आलू बीज उत्पादन कार्यक्रम को जारी रखा है। इस प्रजनक बीज को कृषि / बागवानी विभागों द्वारा प्रमाणित बीज के रूप में लगभग 4,32,000 टन पैदा किया जाता है।इस प्रकार, देश लगभग 484 मिलियन अमेंरिकी डॉलर बचाता है, क्योंकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहां तक कि चीन जैसे अधिकांश एशियाई देश यूरोप से निरंतर बीज आलू का आयात करते हैं।सीड प्लॉट तकनीक के माध्यम से भारत में पहाड़ियों से लेकर मैदानों तक आलू के प्रजनन के विकेंद्रीकरण ने देश को विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के अनुकूल किस्मों का विकास करने में सक्षम बनाया है।बीज आलू उत्पादन के तहत क्षेत्र में भी 12 गुना की वृद्धि हुई और इसने हर कृषि जलवायु अवस्था में पूरे देश में बीज आलू को उपलब्ध कराया है |
• ऊतक संवर्धन
- बीज स्वास्थ्य मानकों को बेहतर बनाने हेतु इन विट्रो तकनीकों जैसे ऊतक संवर्धन और मेरिस्टेम संवर्धन के माध्यम से प्रजनक बीज के उत्पादन में लगने वाले समय को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं।वर्तमान में, प्रजनक बीज उत्पादन कार्यक्रम का लगभग 5 प्रतिशत ऊतक संवर्धन के माध्यम से उत्पादित सूक्ष्म कंदो द्वारा प्रतिवर्ष पूर्ति की जाती है। आगामी वर्षों में ऊतक संवर्धन प्रचारित सामग्री के माध्यम से प्रजनक बीज का 100 प्रतिशत उत्पादन करना प्रस्तावित है।
• सस्य तकनीक
विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में आलू उत्पादन के लिए विभिन्न पद्धतियों के विकास ने इन क्षेत्रों में आलू की उत्पादकता में सुधार करने में सहायता की है।आलू की फसल कृषि निवेश प्रधान होती है और उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिए इष्टतम संवर्धन पद्धतियों की आवश्यकता होती है।इष्टतम संवर्धन पद्धतियां फसल की वृद्धि और विकास प्रजीणित घटना विज्ञानी चरणों अर्थात अंकुरण पूर्व, अंकुरण से कंद बनने, कंद बनने से कंद की बढ़वार एवं कंद बढ़वार से पूरा कंद बनने तक पर निर्भर करता है।संवर्धन पद्धतियों को भारतीय मैदानों के इस प्रकार अनुकूल बनाया जाता है जिससे कंद बनने की शुरुआत और विकास उस अवधि में हो जब रात का तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से कम हो और दिन का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से कम हो|इस प्रयोजन हेतु, विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों में उर्वरक और सिंचाई की आवश्यकता को ए आई सी आर पी (आलू) के तहत बहु-स्थानीय परीक्षणों के माध्यम से हल किया गया है।कंद बढ़वार की पूर्णता पर्णवृष्टि के प्रारम्भ के साथ होती है| पोषण और नमी में परिवर्तन करके, पर्णसमूह में विलम्ब किया जाता है जिससे आनुक्रमिक कंद आकार की बढ़वार की निरंतरता को सुनिश्चित किया जा सके जिसके परिणामस्वरूप अधिक उपज की प्राप्ति हो |
देश के विभिन्न क्षेत्रों के लिए कई लाभदायक आलू-आधारित अंतर फसल और फसल चक्रों की पहचान की गई है। आलू का लाभकारी रूप से गेहूं, सरसों और गन्ने के साथ अंतरा सस्यन किया जा सकता है। इन फसल प्रणालियों ने मिट्टी की उर्वरता को ब्नाए रखने में मदद की है और उर्वरक अर्थव्यवस्था, फसल की उपज और सकल रिटर्न में सुधार किया है। इसके अलावा, लागत प्रभावी उपकरणों और यंत्रो के निर्माण और विकास के माध्यम से चयनित क्षेत्रों में आलू की खेती का यंत्रीकरण किया गया है।
- पौध - संरक्षण
भारत में प्रमुख आलू रोगों और हानिकारक कीटों के लिए प्रभावी प्रबंधन पद्धतियां तैयार की गई हैं। पिछेता झुलसा आलू की सबसे भयंकर बीमारी है जो लगभग हर साल पहाड़ियों और मैदानों में होती है। रासायनिक नियंत्रण उपायों के अलावा, कई पिछेता झुलसा प्रतिरोधी किस्मों को विकसित किया गया है। आलू की ऐसी किस्मों का भी प्रजनन किया गया है जिनमें वॉर्ट और सिस्ट नेमाटोड के लिये प्रतिरोधक क्षमता हैं। रोगों और हानिकारक कीट को नियंत्रित करने के लिए रसायनिक और जैविक नियंत्रण उपायों को भी विकसित किया गया है। पहाड़ियों और मैदानों के लिए पिछेता झुलसा पूर्वानुमान प्रणाली के विकास ने पिछेता झुलसा बीमारी की उपस्थिति सम्बंधी शुरुआती चेतावनी तंत्र को सक्षम बनाया है।
भंडारण
यूरोपीय देशों में, आलू की फसल गर्मियों में उगाई जाती है और भंडारण का प्रमुख मौसम शीत ऋतु है। हालाँकि, भारत में 85 प्रतिशत आलू सर्दियों में पैदा होता है और लंबी गर्मी के दौरान इसका भंडारण किया जाता है। इसके लिए शीत गृहों में 2-40 डिग्री सेल्सियसपर आलू के भंडारण की आवश्यकता होती है, जिसमें पर्याप्त लागत शामिल होती है। इससे आलू के कंद में अपचायी शर्करा संचय होती है जिसके परिणामस्वरूप आलू मीठा हो जाता है।
हालाँकि, भारत में कई पारंपरिक कम लागत वाली और गैर-प्रशीतित भंडारण संरचनाएं (अनिवार्य रूप से बाष्पीकरणीय या निष्क्रिय बाष्पीकरणीय शीतलन के आधार पर) हैं, जो सफल भी हैं। इन पारंपरिक संरचनाओं का अध्ययन एवं सत्यापन किया गया और इन्हे विशेष क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाया गया है। गैर-प्रशीतित भंडारण में, अंकुर के कारण घटने वाले वजन और संकोचन को रोकने के लिए अंकुरण अवरोधक के उपयोग को भी लोकप्रिय बनाया गया है। सीआईपीसी (isopropyl-N-chlorophenyl carbamate) को यदि 25 मि.ग्रा. घुलनशील मात्रा का प्रति किलो कंद मात्रा में प्रयोग किया जाये तो यह सबसे प्रभावी अंकुरण अवरोधक सिद्ध हुआ है।
प्रसंस्करण एवंमूल्य वर्धन
- आलू की सब्जी के रूप में खपत के अलावा, इसको कई उत्पादों जैसे चिप्स, फ्रेंचफ्राइज़, क्यूब्स, कणिकाओं और डिब्बाबंद उत्पादों में संसाधित किया जा सकता है। आलू प्रसंस्करण के लिए प्राथमिक निर्धारकों में उच्च शुष्क पदार्थ और निम्न अपचायी शर्करा सामग्री शामिल है। चिप्स, फ्रेंचफ्राइज़ और निर्जलित उत्पादों के लिए 20 प्रतिशत शुष्क पदार्थ सामग्री वांछनीय है। इसी तरह, प्रसंस्करण के लिए 100 मिलीग्राम / 100 ग्राम ताजा वजन वाले कंद में अपचायी शर्करा की मात्रा को कम करने के लिए स्वीकार्य माना जाता है। नौ किस्में अर्थात, प्रसंस्करण प्रयोजनों के लिए कुफरी चिप्सोना -1, कुफरी चिप्सोना -2, कुफरी चिप्सोना -3, कुफरी ज्योति, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी लवकार , कुफरी सूर्या और कुफरी हिमसोना, कुफरी फ्राइसोना को विकसित किया गया है। भारत में, संगठित क्षेत्र में आलू प्रसंस्करण लगभग एक दशक पहले शुरू हुआ था, और इस क्षेत्र का हालिया प्रसार मुख्य रूप से केआअनुसं द्वारा विकसित तीन देसी आलू प्रसंस्करण किस्मों अर्थात कुफरी चिप्सोना-1 और कुफरी चिप्सोना-3 के विकास के परिणामस्वरूप हुआ। इन दो किस्मों का उपयोग अब उद्योगों द्वारा चिप्स और फ्रेंच फ्राइज़ के प्रसंस्करण में किया जा रहा है।
- कंप्यूटर एप्लिकेशन
सिमुलेशन मॉडलिंग अब व्यापक रूप से विभिन्न विषयों में सामरिक निर्णयों को लेने के लिए उपयोग किया जाता है।केआअनुसं ने आलू की वृद्धि और विकास हेतु इंफोक्रॉप-आलू मॉडल विकसित किया है, जिससे वर्धन अवधि का निर्धारण, विभिन्न कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों के तहत प्रबंधन पद्धतियो का अनुकूलन और सटीक उपज का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है ।एक विशेषज्ञ प्रणाली / डीएसएस अर्थात आलू कीट प्रबंधन, फसल निर्धारण के लिए कंप्यूटर सहायक सलाहकार प्रणाली, आलू उगाने की अवधि और उपज अनुमानक (सीएएएसपीएस), पौष्टिक आलू उगाने का मौसम हेतु अनुमानक (पीपीजीएसई), आलू की संभावित उपज, तनाव सम्बंधी घंटे, दिन और बढ़ते तापमान के दिन के अनुमान हेतु उपकरण, आलू खरपतवार प्रबंधन (पीडब्लूएम), नाइट्रोजन प्रबंधन के लिए सलाहकार प्रणाली, आलू उगाने का मौसम डिस्क्रिप्टर, इंडोब्लाइटकास्टट- आलू पिछेता झुलसा पूर्वानुमान प्रणाली आदि केआअनुसं में विकसित किए गए थे।
प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण
कृषि प्रणाली की सफलता का आकलन करने के लिए अकेले अनुसंधान उपलब्धियां पर्याप्त नहीं हैं। अनुसंधान सम्बंधी जानकारी को विभिन्न जैव-भौतिक और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अंतर्गत परिष्कृत करके अनुसंधान के माध्यम से मूल्यांकन और परिष्कृत करने के पश्चात एक प्रौद्योगिकी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इस संबंध में, एआइसीआरपी(आलू) द्वारा संचालित बहु-क्षेत्रीय परीक्षण और केआअनुसं द्वारा संचालित टीओआरपी जैसे कार्य अनुसंधान परियोजना, लैब-टू-लैंडकार्यक्रम,जनजातीय क्षेत्र विकास (आरएडी) कार्यक्रम और संस्थान-ग्राम संपर्क कार्यक्रम (आईवीएलपी) क्षेत्र से प्रतिक्रिया प्राप्त करने और उपयुक्त प्रौद्योगिकियों के विकास में अति सहायक साबित हुए है।लक्षित उपयोगकर्ताओं के लिए प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण एक जटिल कार्य है जिसमें कई घटक और आयाम शामिल हैं। महत्वपूर्ण घटकों में से एक प्रौद्योगिकी उत्पादन प्रणाली और ग्राहक प्रणाली के बीच उचित संबंध है। इस संबंध में, नवीन पद्धतियो जैसे आवश्यकता सम्बंधी मूल्यांकन, भागीदारी संबंधी योजना और कार्यान्वयन, और प्रत्यक्ष वैज्ञानिक-किसान इंटरफेस ने प्रौद्योगिकी / कृषकों / ग्राहकों द्वारा तेजी से प्रसार को बढ़ावा दिया है। केआअनुसं ने प्रदर्शनी, प्रशिक्षणों, किसान मेंलों, आल इंडिया रेडियो पर आलू स्कूल, साहित्य की आपूर्ति और अन्य विस्तार गतिविधियों के माध्यम से किसानों के साथ संबंध स्थापित किए हैं। इसके अलावा, आलू प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण में सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और बाधाओं को जांचने के लिए अध्ययन किए गए हैं।
आलू का निर्यात
यद्यपि भारत कुल विश्व आलू उत्पादन में 7.55% का योगदान देता है, लेकिन दुनिया के आलू के निर्यात में इसका 0.7% हिस्सा काफी महत्वहीन है। भारतीय आलू प्रतिबंधित बीमारी जैसे वार्ट, ब्लैक स्क्रफ, कंद कीट और नेमाटोड जैसे कीटों से वास्तव में मुक्त हैं, जो फाइटोसैनेटिक मानकों के लिए एक बैरोमीटर हैं। प्राकृतिक लाभ के कारण जनवरी से जून के दौरान यूरोपीय देशों से आपूर्ति कम होने पर भारत ताजा टेबल आलू निर्यात करता है। यह साल भर ताजे आलू की आपूर्ति भी करने में सक्षम है क्योंकि भारत में विविध कृषि-जलवायु हैं और देश के एक या दूसरे हिस्से में पूरे वर्ष आलू उगाया जाता है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के बदलते परिदृश्य में भारत में आलू का अच्छा भविष्य है। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप कई विकासशील देश अंतर्राष्ट्रीय आलू व्यापार में एकीकृत हो गए हैं। कृषि वस्तुओं पर मात्रात्मक प्रतिबंध समाप्त करने के साथ, आयात और निर्यात करने वाले देशों के बीच आलू का आयात और निर्यात मूल्य और उत्पादन लागत के अंतर पर आधारित होगा। सस्ते मज़दूरों की उपलब्धता के परिणामस्वरूप देश में कम उत्पादन लागत के कारण, अंतर्राष्ट्रीय आलू व्यापार में भारत को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ होगा।
- नई सदी में आलू
भारत में लोगों के जीवन स्तर में सुधार के साथ, आहार संबंधी आदतों में अनाज का स्थान सब्जियां ले लेंगी| ऐसी स्थिति में यह अनुमान है कि भारत को 2020 तक 49 मिलियन टन आलू का उत्पादन करना होगा। यह लक्ष्य केवल उत्पादकता स्तर में सुधार करके ही प्राप्त किया जा सकता है। भारत में आलू की उत्पादकता बेल्जियम (490 क्वी / है), न्यूज़ीलैंड (450 क्वी / है), यूके (397 क्वी / है) और यूएसए (383क्वी / है) की तुलना में काफी कम (183.3 क्वी / है) है। यह भारत में लघु फसल अवधि के कारण है। देश के विभिन्न हिस्सों के कृषि-पारिस्थितिक में व्यापक भिन्नताएं हैं, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों (तालिका-2) के उत्पादकता स्तरों में व्यापक भिन्नता है। इसलिए, हमारा प्रयास स्थान-विशिष्ट और समस्या-विशिष्ट किस्मों और प्रौद्योगिकियों का विकास करना होना चाहिए।
भारत में अधिकांश लोगों को या तो आलू के पोषक तत्वों के बारे में कोई जानकारी नहीं है या इसके बारे में गलत धारणा है । कम वसा (0.1 प्रतिशत) और कैलोरी के साथ, यह मोटापा नहीं बढाता है। आलू के बारे में गलत धारणा के कारण, भारत में आलू की प्रति व्यक्ति खपत केवल 16 किलोग्राम / वर्ष है। वहीं दूसरी ओर, यूरोप में प्रति व्यक्ति खपत 121 किलोग्राम / वर्ष है और पोलैंड में 136 किलोग्राम / वर्ष है। इसलिए, भारत में आलू की खपत में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है। इस प्रयोजन के लिए, जैसे अंडे और दूध के प्रचार के लिए जनसंचार माध्यमों जैसे टेलीविज़न, रेडियो और समाचार पत्रों के माध्यम से लॉन्च किया जाता है, उसी प्रकार आलू का भी प्रचार किया जाना चाहिए जिसमें इसके पोषण मूल्य पर प्रकाश डाला जाए। इसके अलावा, पशुओं के चारे के रूप में अधिशेष आलू का उपयोग करने की संभावना के सम्बंध में भी पता लगाया जाना चाहिए।एक सीजन में अतिरिक्त आलू शीतभंडार में 2-4 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर किया जाता है। यह संग्रहीत आलू को प्रसंस्करण के लिए अक्षम कर देता है और शर्करा के संचय के कारण इन्हें टेबल आलू के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। मिठास से बचने के लिए आलू का 10-12 डिग्री सेल्सियस पर भंडारण करना आवश्यक है। केवल बीज आलू को 2-4 डिग्री सेल्सियस पर शीत गृह में रखा जाना चाहिए। यह कम से कम शीत गृह में 60 प्रतिशत जगह खाली करेगा जिसे सीआईपीसी उपचार के साथ 10-12 डिग्री सेल्सियस पर प्रसंस्करण और टेबल प्रयोजन वाले आलू का भंडारण करने के लिए परिवर्तित किया जा सकता है जिससे ऊर्जा और भंडारण लागत पर काफी बचत होगी।
विश्व अर्थव्यवस्था में आलू प्रसंस्करण एक तेजी से बढ़ता क्षेत्र है। बढ़ते शहरीकरण, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि और पर्यटन के विस्तार के कारण, भारत और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रसंस्कृत आलू उत्पादों की मांग तेज गति से बढ़ी है। हालांकि, भारत में, आलू का प्रसंस्करण कुल वार्षिक उत्पादन में2प्रतिशत से भी कम है, जबकि यह संयुक्त राज्य अमेंरिका में 60 प्रतिशत, नीदरलैंड में 47 प्रतिशत और चीन में 22प्रतिशत है। इसलिए, भारत में आलू प्रसंस्करण उद्योगों का विस्तार करने के लिए और प्रसंस्करण में विविधता लाने के लिए इसे आटा, क्यूब्स, कणिकाओं,फ्लैक और स्टार्च के रूप में प्रसंस्कृत किया जा सकता है।
परिवर्तित वैश्विक परिदृश्यमें, आलू का उत्पादन और उपयोग बहुत तेजी से बदल रहा है। ये परिवर्तन कई अवसरों को प्रभावित करते हैं जिनका प्रभावी विस्तार प्रणाली के माध्यम से लाभ लिया जा सकता है। जागरूकता पैदा करने के लिए आधुनिक सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) का उपयोग समकालीन समय में अत्यधिक प्रासंगिक है। यह हमें सूचनाओं का विरूपण करने वाले बीच के माध्यमों को समाप्त करके सीधे लक्षित उपयोगकर्ताओं तक पहुंचने में सक्षम करेगा। आलू उत्पादन और विपणन के संबंध में आलू उत्पादकों के बीच उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए बाजार आधारित विस्तार रणनीतियों को विकसित करने हेतु भी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।